सुकृति गुप्ता: देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज’ के प्रोफेसर अतुल जौहरी के खिलाफ आठ छात्राओं ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है. एक प्रोफेसर का ऐसे कुकृत्य में शामिल होना निंदा की बात तो है ही,पर यह बात भी निंदनीय है कि न्याय के लिए हंगामा करना पड़ रहा है. ऐसा क्यों होता है यौन हिंसा जैसे गंभीर अपराधों में भी पुलिस अपने आप सख्त कार्रवाई नहीं करती! पहले हंगामा करना पड़ता है. धरना देना पड़ता है. तब भी संतोषजनक कार्रवाई हो इसका कोई भरोसा नहीं.

जेएनयू के मसले को ही देख लें तो आठ छात्राओं की शिकायत के बावजूद भी पुलिस ने शुरु में प्रोफेसर को गिरफ्तार करना मुनासिब नहीं समझा. हंगामे के बाद गिरफ्तार भी किया जाता है तो चंद मिनटों में ही आरोपी को ज़मानत भी मिल जाती है. यहाँ तक कि उस प्रोफेसर को निलंबित भी नहीं किया जाता जबकि उससे पीड़ित छात्राओं को खतरा हो सकता है. खुद प्रशासन में रहते हुए प्रोफेसर जांच को प्रभावित भी कर सकता है. ऐसे में आरोपी (इस मामले में प्रोफेसर जौहरी) को रियायत दे दी जाती है और वह मज़बूत स्थिति में आ जाता है.
ऐसा क्यों होता है कि यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में भी पीड़ित पक्ष को ही कमज़ोर स्थिति में डाल दिया जाता है, जबकि आरोपी हमेशा मज़बूत स्थिति में होता है. यहाँ तक कि बलात्कार जैसे मामलों में भी यही स्थिति नज़र आती है जबकि कानून यह स्पष्ट तौर पर कहता है कि ऐसे मामलों में जो आरोपी है उसे साबित करना होता है कि वह निर्दोष है,न कि पीड़ित पक्ष को.
यह कानून इसीलिए बनाया गया है ताकि आरोपी मज़बूत स्थिति में न आ जाए। जबकि व्यवहार में इसके ठीक उलट पीड़ित पक्ष ही हमेशा कमज़ोर स्थिति में नज़र आता है. जब बलात्कार जैसे मामलों को इतने हल्के में ले लिया जाता है तो फिर इसकी उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि यौन हिंसा के अन्य मामलों को गंभीरता से लिया जाएगा! उनके खिलाफ उचित कार्यवाही की जाएगी!
अक्सर ऐसे मामलों के प्रति मामूली छेड़कानी जैसा रवैया अपनाया जाता है, जबकि कोई भी ऐसी छेड़खानी जिसमें महिला असहज महसूस करे मामूली नहीं होती. मामूली समझी जाने पर यह छेड़खानियाँ बड़ी हो जाती हैं. असल में यह कमज़ोर स्थिति अफसरशाही के इस गलत रवैये से ही बनती है. कभी-कभी इस रवैये का अंजाम बलात्कार भी हो जाता है.
जेएनयू के मामले में, फिलहाल यह स्थिति और ज़्यादा दयनीय नज़र आ रही है क्योंकि खुद जेएनयू का प्रशासन शक के कटघरे में है. वह जेएनयू जो औरतों के प्रति हमेशा संवेदनशील रहा है. जहाँ लड़कियाँ देर रात तक सड़कों पर घूमा करती हैं और उन्हें अस्त-व्यस्त हो जाने की परवाह नहीं होती.उन्हें परवाह नहीं होती क्योंकि उन्हें जेएनयू पर विश्वास है. पर यहाँ यह विश्वास डगमगाता नज़र आ रहा है, इसलिए जेएनयू खुद जेएनयू के खिलाफ़ बगावत कर रहा है.
एक वही पुराना जेएनयू है जो अभी भी अस्त-वयस्त रहना चाहता है.बेखौफ़ घूमना चाहता है. दूसरी ओर एक नया जेएनयू है जो खुद अस्त-व्यस्त हो चुका है इसलिए किसी ओर को अस्त-व्यस्त हो जाने की इजाज़त नहीं देना चाहता.दोनों को एक दूसरे का अस्त-व्यस्त हो जाना भा नहीं रहा. लेकिन इस अस्त-व्यस्तता का असर पीड़िताओं पर दिख रहा है. शायद यही कारण था कि पीड़िताओं ने जेएनयू प्रशासन के पास जाने की बजाए पुलिस के पास जाना मुनासिब समझा.

पर पुलिस ने क्या किया? जी पुलिस ने कार्यवाई की.पर यदि उनके रवैये पर गौर फरमाया जाए तो यह साफ जाहिर होता है कि इस मसले में भी जो कार्यवाई की गई वह महज़ दिखावे के लिए की गई. सोच समझकर की गई, पर न तो पीड़िताओं के बारे में सोचा गया और न ही इस मामले की गंभीरता को समझा गया. सोचने और समझने की शक्ति आरोपी को बचाने के लिए इस्तेमाल की गई.
प्रोफेसर को 24 घंटे की रिमांड पर न रखना, कोर्ट में पेश करने की जल्दी और जल्दी से ज़मानत मिल जाना इसी सोच और समझ को बयाँ करती है. यह सच है कि अभी प्रोफेसर का गुनाह साबित नहीं हुआ है, पर यह भी सच है कि प्रोफेसर अभी तक निर्दोष भी साबित नहीं हुआ है.
जिस तरह के हालात पैदा किए जा रहे हैं, उससे तो कुछ भी साबित नहीं हो पाएगा. यहां एक सच और दिख रहा है कि सरकार और उसकी अफ़सरशाही को कोई चिंता नहीं है. यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर मसले पर भी उचित कार्रवाई करना पुलिस अपना फर्ज़ नहीं समझती.
जो सख्ती आरोपी के साथ दिखानी चाहिए, वो न्याय के लिए प्रदर्शन कर रहे लोगों पर दिखाती है. पर अगर पुलिस शुरु में ही उचित कार्रवाई कर ले, तो प्रदर्शन और हंगामें करने ही क्यों पड़ें! सरकार है कि उनकी सख्ती कागज़ों के साथ दिखती है.
जब यौन हिंसा के मसले बढ़ने लगते हैं तो सरकार कानून तो सख्त कर देती है,पर इस सख्ती को व्यवहार में नहीं लाती. यदि पीड़ित पक्ष सख्ती की मांग करते हैं तो पुलिस उनके साथ ही सख्त हो जाती है.अजीब सख्ती है! ऐसी सख्ती पर तो गुस्सा आना चाहिए.पर सरकार है कि कागज़ों के साथ ही सख्ती दिखाकर अपना सारा गुस्सा निकाल लेती है.
गुस्सा नहीं निकालती. शायद! अपनी असंवेदनशीलता को फाइलों में छिपाने का प्रयास करती है पर छिपा नहीं पाती. असल में इस मामले में सरकार नाकामयाब ही रही है, न्याय दिलाने में भी और अपनी असंवेदनशीलता छिपाने में भी.